*सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले को कहा असंवैधानिक, राष्ट्रपति के रेफरेंस पर निर्णय की 10 बड़ी बातें*
*नई दिल्ली*
राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों को मंजूरी देने को लेकर समय-सीमा निर्धारित करने वाले अपने ही फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया है। भारत के चीफ जस्टिस (सीजेआई) बीआर गवई की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने संविधान के आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति के रेफरेंस पर अपनी राय में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच का फैसला संविधान में निर्धारित व्यवस्था के अनुरूप नहीं था।
*समय-सीमा तय करने वाला फैसला असंवैधानिक*
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि संवैधानिक अदालतें राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा तय नहीं कर सकतीं। तमिलनाडु मामले में दो जजों की बेंच द्वारा दिया गया ऐसा निर्देश असंवैधानिक है। भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संविधान के आर्टिकल 143 के तहत दिए गए रेफरेंस के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार(20 नवंबर,2025) को कहा कि अदालत संविधान के आर्टिकल 200/201 के तहत बिलों को मंजूरी देने के राष्ट्रपति और राज्य के फैसलों के लिए कोई टाइमलाइन नहीं दे सकता।
*विवेकाधिकार सीमित नहीं किया जा सकता*
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपाल के पास यह विवेकाधिकार है कि वह या तो विधेयक को अपनी टिप्पणियों के साथ सदन को वापस भेज दे या उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखे। सीजेआई बीआर गवई की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि राज्यपाल के इस विवेकाधिकार को अदालत के माध्यम से सीमित नहीं किया जा सकता।
*कोर्ट का’डीम्ड असेंट’वाला नजरिया गलत*
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि कोर्ट की ओर से विधेयकों को’डीम्ड असेंट’के आधार पर मंजूरी मान लेने वाला दृष्टिकोण भारत के संविधान की भावना और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के भी विरुद्ध है। ‘डीम्ड असेंट’वाला नजरिया असल में राज्यपालों के लिए निर्धारित कार्यपालिका संबंधी कार्यों पर कब्जा करना और उन्हें बदलना है,जो हमारे लिखे हुए संविधान के दायरे में उचित नहीं है।
*राज्यपाल संवाद का रास्ता चुनें,अवरोध का नहीं*
सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में यह भी कहा है कि राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल अनिश्चितकाल तक सहमति को रोके नहीं रख सकते। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि भारत के सहकारी संघवाद में गवर्नरों को बिलों को लेकर विधायिका के साथ संवाद करनी चाहिए, रुकावट वाला रवैया नहीं अपनाना चाहिए।
*सीमित दखल दे सकती है अदालत- सुप्रीम कोर्ट*
इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर राज्यपालों की ओर से विधेयकों पर फैसला लेने में बहुत ही ज्यादा देर होती है या बिना वजह बताए इसे रोके रखा जाता है, तो अदालत न्यायिक समीक्षा के लिए सीमित दखल दे सकती है। इसके लिए राज्यपाल को निर्देश दिया जा सकता है कि वह एक निश्चित समय के अंदर उस पर फैसला लें। हालांकि, इस दौरान विधेयक के गुण-दोष पर कोर्ट कोई विचार नहीं करेगा।
*राष्ट्रपति ने आर्टिकल 143 के तहत मांगी थी राय*
राष्ट्रपति ने 14 मई को सुप्रीम कोर्ट से आर्टिकल 143 के तहत इस बारे में राय मांगी थी कि क्या संवैधानिक रूप से समयावधि निश्चित न होने की वजह से राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों को मंजूरी देने, ठुकराने, रोकने के लिए राज्यपालों पर किसी तरह की कोई समय सीमा निर्धारित की जा सकती है।
*न्यायिक आदेशों से तय हो सकती है समय-सीमा*
राष्ट्रपति ने पूछा था कि बिना संविधान में तय समय सीमा और गवर्नर/राष्ट्रपति के लिए शक्तियों के इस्तेमाल के तरीके तय किए बिना, क्या राज्यपालों/राष्ट्रपति के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय सीमा तय की जा सकती है और इसके इस्तेमाल का तरीका तय किया जा सकता है?
*अनुच्छेद 142 की शक्तियों को लेकर भी था सवाल*
राष्ट्रपति की ओर से राज्यपाल के पास लंबित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशेष शक्तियों के इस्तेमाल पर भी सवाल उठाया था।
*राष्ट्रपति के रेफरेंस पर संविधान पीठ में हुई सुनवाई*
राष्ट्रपति के 14 सवाल वाले रेफरेंस पर भारत के चीफ जस्टिस बीआर गवई, अगले चीफ जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एस चांदूरकर की संवैधानिक बेंच में सुनाई हुई। अदालत ने 10 दिनों तक मौखिक दलीलें सुनने के बाद 11 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
*सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने तय की थी टाइमलाइन*
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन ने एक अप्रत्याशित फैसले में तमिलनाडु के गवर्नर के पास लंबित राज्य विधानसभा से पास 10 बिलों को बिना उनके औपचारिक स्वीकृति के ही स्वीकृत (डीम्ड असेंट) मान लिया था। यही नहीं, बेंच ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए विधानसभाओं से पारित बिलों को मंजूरी देने, मना करने के लिए भी समय सीमा तय कर दी थी। इसी के बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी।



